चुनावी व्यंग्य : ‘आया चुनाव मेढ़क लगे टर्राने’ कितने सालों से दिखे भी न थे जिनका रूप भी विस्मृत हो गया
चुनावी व्यंग्य। आया चुनाव। मेढ़क लगे टर्राने। कितने सालों से दिखे भी न थे। जिनका रूप भी विस्मृत हो गया था। कि मेढ़क भी कोई प्राणी होता है। नई पीढ़ी के बच्चों को तो इन मेढ़को से कोई परिचय भी न था। अभी चुनावी समय में सौभाग्य से उन्हें दूर से दिखाकर बता सकते थे कि वो जो मंच पर टर्रा रहा है एक विशेष प्रकार का मेढ़क है। वो विशेष समय पर टर्राने वाले मेढक है। और तो और जब इन्हें प्यास लगती है तो ये मौसम को अपने तरीके से निर्मित कर लेते है। और टर्रा लेते है।
तो इस बार फिर काली-गोरी बदलियों के साथ डोल नगाड़े बजाते गले में योजनाओं के गिफ्ट बाउचर, फुलझड़ियाँ, और लालीपॉप के गुब्बारे, ख़याली पुलाव का मंच सजाये टर्रा रहे थे।
वैसे देखा जाय तो शुद्ध मेढ़क अब लुप्त हो गये है। चूकि वर्षा में भारी मिलावट हो गई है। काल्पनिक वर्षा। आभासी वर्षा। डिजिटल वर्षा। बादल घूमते दीखते है नाचते दीखते है। लेकिन टॉय टॉय फिस। ऐसे में अब कौन मेढक इतनी मसक्कत करे गर्दन उठाए टर्राता रहे। तो सभी पुराने शुद्ध मेढ़कों ने सन्यास ले लिया। लेकिन उन्ही की एक नई प्रजाति विकसित हुई। विशुद्ध मेढ़कों की जिनकी क्षमता अधिक और अद्भुत लम्बे समय तक खाद्य सामाग्री संचित करने में सक्षम। शायद ऐसा लगता हैI समयानुकूल इन मेढ़कों ने रेगिस्तानी ऊँटों से संकर करके ये गुण विकसित कर लिया हो। क्योकि एक बार भी ये जी भर के टर्रा ले तो कम से कम पाँच साल तो टर्राने की आवश्यकता नही पढ़ती ।
अपनी आने वाली पीढ़ियों के प्रति अति जागरूक और परम संवेदनशील ये विशुद्ध मेढक । अधिकांश समय भूमोपर ही विलुप्त से हो जाते है। और सपरिवार आने वाली योजनाओं के चिन्तन मे व्यस्त हो जाते है। और फिर जरूरत पड़ने पर बाल बच्चों पति पत्नियो सास दामाद और रिस्तेदारों सहित एक ही एकता के राग में टर्राते है। और उस मधुर राग से लोगों में ऐसा भ्रम पैदा कर देतें है। कि सचमुच में आषाढ़ आ गया हो । सबूत भी था। बुजुर्गो की बात का कि “दादुर बोले चढ़े अषाढ़” बात तो वही लेकिन सोंच मे उल्टी क्या फर्क पड़ता है। जब इतने मेढ़क टर्रा रहें हैं तो वर्षो का ही समय होगा। प्रत्यक्षं किं प्रमाणं।
व्यंग्य उमेश मौर्य की कलम से
– उमेश मौर्य
सराय, भाई, सुलतानपुर,
उत्तर प्रदेश