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दमोह। दमोह के सिंग्रामपुर (संग्रामपुर) से 6 किलो मीटर की दूर सतपुड़ा की पहाड़ियों पर यह क्षतिग्रस्त किला स्थित है। प्राचीन काल में इस किले का बहुत अधिक सामरिक महत्व था। कहा जाता है कि इस विशाल किले को राजा वेन बसोर और यहां शासन करने वाले गौंड राजाओं ने बनवाया था। 15वीं शताब्दी में गौंड राजा दलपत शाह अपनी रानी दुर्गावती संग यहां निवास करते थे। इस किले के नजदीक ही एक विशाल झील है जिसमें कमल के पुष्पों का समूह झील के आकर्षण को और बढ़ा देता हैं। यह गौंड वंश के शौर्य और गौरव की धरोहर है, जो अब खंडहर अवस्था में पहुँच गयी है।
लेकिन आज भी अपने आप में वीरता व शौर्यगाथा को यह किला समेटे हुआ हैं। जिस समय यह किला वीरांगना रानी दुर्गावती की राजधानी था, यहां का नाम देशभर में जाना जाता था। लेकिन हजारों साल बीतने के बाद भी इस किले की दीवारें आज भी पूरी मजबूती के साथ खड़ी हैं। जो रानी दुर्गावती की वीरता की कहानी बयां कर रहीं हैं।
आज वीरान पड़े इसे महल के हाथी दरवाजे से रानी किले के अंदर से बनी सुरंग से जाती थीं। जो पहाड़ी के बीच से निकलकर जलाशय तक पहुंचती थीं। इसके अलावा यहां की पहाड़ियों के अंदर ही अंदर कई गुप्त रास्ते भी हैं जो आज भी अबूझ पहेली बने हुए हैं। हैरानी की बात तो यह है कि इस सदी के मानव जनित निर्माण की मजबूती व गुप्त रास्तों का तयखाना बनाने की अद्भुत कला आज के मशीनी युग इंजीनियरिंग के सामने इस तरह का निर्माण कर पाना चाहकर भी संभव नहीं है।
पहाड़ियों पर निगरानी व सुरक्षा के लिए समांतर सैनिकों के बंकर को भेद पाना उस समय असंभव था। जहां पर अपनी रियासत तक जाने के लिए सैनिकों व रानी को किले की सुरक्षा घेरा में रहते हुए अनेक रहस्यमयी रास्ते शोध का विषय बने हुए हैं। किले के अंदर ही अंदर गुप्त महल जिन तक बाकायदा सूर्य के प्रकाश व वायु पहुंचने के पुख्ता इंतजामों का ख्याल इस कालखंड की कारीगरी में रखा गया है।
सिंगौरगढ़ किले की बनावट उस समय इस अद्भुत तरीके से की गई थी कि कोई भी शत्रु सीधे किले पर आक्रमण नहीं कर सकता था, क्योंकि यह किला चारों ओर से पहाड़ियों के सुरक्षा घेरे से घिरा हुआ है। इसके अलावा इन्हीं पहाड़ियों के अंदर आज भी दर्जनों गुप्त रास्ते बनाए गए हैं। यदि किसी भी तरह का कोई खतरा किले पर इन्हीं रास्तों से सुरक्षित बाहर निकला जा सके। वहीं पहाड़ियों पर सैनिकों की छावनी के वंकर तोप रखने तक की पूरी व्यवस्था पहाड़ियों पर खड़ी की गई थी। दीवारों में स्पष्ट दिखाई देती है। यही कारण कारण है कि रानी दुर्गावती ने उस समय कई दुश्मनों को परास्त कर दिया था।
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बताया जाता की सिंग्रामपुर में रानी दुर्गावती मुगल साम्राज्य के प्रतिनिधी सेनापति आसफ खान, की सेना से साहस पूर्ण युद्ध करते हुए वीरगती को प्राप्त हुई। अपने साम्राज्य की एकता और अंखडता को बनाए रखने के लिए उनके संकल्प समर्पण और साहस की बराबरी विश्व इतिहास में नहीं होगी। क्षेत्र में बुंदेलो ने कुछ समय के लिए यहाँ राज्य किया इसके बाद मराठों ने राज्य किया। सन् 1888 में पेषवा की मृत्यु के बाद अंगे्जो ने मराठों को उखाड फेंका।
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वीरांगना रानी दुर्गावती |
अंगे्जो से भारत के स्वतंत्र कराने के लिए दमोह ने देश की स्वतंत्रता के लिए हो रहे संघर्ष में बराबरी से भाग लिया। हिंडोरिया के ठाकुर किशोर सिंह सिग्रामंपुर के राजा देवी सिंह, करीजोग के पंचम सिंह गंगाधर राव, रघुनाथ राव, मेजवान सिंह, गोविंद राव, इत्यादि के कुशल नेतृत्व में अंगे्जों के खिलाफ 1857 के विद्रोह में भाग लिया। पौराणिक कक्षा के अनुसार दमोह शहर का नाम नरवर की रानी दमंयती जो कि राजा नल की पत्नि थी, के नाम पर पड़ा।
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